ग़ज़ल
प्रीत में भी रीत का आज मगर अभाव है
हुक्मरानों के यहाँ भी क्यों चहुदिश तनाव है
पास रखकर खंजरों को जो चलाते राज हैं
मुल्क के ही जिस्म में घाव ही अब घाव है
ताल का यह हाल क्यों है पूछिये खुद आपसे
डालता है मुश्किलों में खुद व खुद स्वाभाव है
आसमां क़ी तरफ भाग रहे अब हमारे कदम
भभकती है क्यों घरों में आज मगर अलाव है
मुश्किलों में पड़ गयी क्यों आज इंसानियत भी
कीचरों में फँस गयी आज अपनी भी नाव है
रंजिसों को भूलकर आगे बढ़ाओ पैर तुम
भूल से भी मत कहो कुछ खास अपना चाव है
देश को गर्दिशों से तुम उबारो अंजनी
देखना कैसा लगेगा मनुज का वर्ताव है
अभि० अंजनी कुमार शर्मा
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