ग़ज़ल
पहले जैसी बातों में अब धार नहीं है।
करनी को कथनी से दरकार नहीं है।।
किधर चल पड़ी है अब इस दौर में दुनिया।
नदियो के दोनों ओर कछार नहीं है।।
छिछलेपन से कैसे उबरेगा मानव।
राजा का अब वैसा दरबार नहीं है।।
करना जो भी अपने बलबूते करना।
मुल्क में कोई भी सरकार नहीं है।।
कोसा न करो तुम मंत्री-संत्री को।
गैरों से उनका कोई करार नहीं है।।
नौका जिसपे बैठी है जमकर जनता
वह खिसक तो रही पर पतवार नहीं है।।
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