गुरुवार, 22 मार्च 2012

kavita-'ghar ka sringar'

घर का श्रृंगा
एक कहावत है -
'पेट बिगाड़ती मूडी, घर बिगाड़ती बूढ़ी'
 जो है घरों का श्रृंगार 
लगने लगा है अब सबों को पहाड़
जिस पर था कभी बूढों और बूढियों को नाज
वही बेटा बन गया है अब बाज
घर के सूनापन को
कौन करती है बरबस दफ़न
पर इंतजार में रहता  है उसके लिए कफ़न
जिसके लिए सब दिन अपनी देह गलाई
न्योछावर कर दी पाई पाई
पर नसीब में नहीं होती पूरी और मलाई 
अब वही बूढ़ा और बूढी हो गए सबके लिए भार
पतोहू जिसे देखते ही पकड़ लेती है अपना कपार
मिलती नहीं है इस उम्र में आदर 
उनके पास अब बचा क्या 
सिर्फ खटिया, तकिया और चादर
लेकिन समझो कुछ नादान
करो मत उनका अपमान
एक दिन तुमको भी बूढ़ा बनना है
जैसा करोगे वैसा पावोगे
उनके कष्टमय जीवन में
बांटकर देखो स्नेह और प्यार
देखना तब कैसे आती है घरों में बहार
                    ई० अंजनी कुमार शर्मा
'हम सब साथ साथ' पत्रिका दिल्ली से प्रकाशित,पेज-१७,अंक-सितम्बर-अक्तूबर-२०११,संपादक/शशि श्रीवास्तव 

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